स्वामी विवेकानंद जन्म जयंती पर विशेष::
“उठो जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति ना हो जाए”
– प्रतिवर्ष युवा दिवस के रूप में किया जाता है उन्हें याद
अशोक झा सिलीगुड़ी:
उठो जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति ना हो जाए। भारत की वैदिक परंपरा को वैश्विक पटल पर रखने वाले विवेकानंद ने पश्चिमी देशों के बड़ बड़े विद्वानों को बौना साबित कर भारत को विश्व गुरु के रूप में पुनर्स्थापित किया। हर साल 12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद जयंती मनाई जाती है। देश में विवेकानंद जी की जयंती को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। स्वामी विवेकानंद जी का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। बहुत कम उम्र में ही नरेन्द्रनाथ ने अध्यात्म का मार्ग अपना लिया था। उनका पूरा नाम नरेंद्र नाथ दत्त था। स्वामी विवेकानंद को देश के सबसे महान सामाजिक नेताओं में से एक माना जाता है, वह धर्म, दर्शन, वेद, साहित्य, पुराणों और उपनिषदों के (Swami Vivekananda Biography) ज्ञाता थे। कम उम्र में ही उन्हें वेद, आध्यात्म और दर्शनशास्त्र का अनुभव हो गया था। एक पारंपरिक परिवार में जन्में स्वामी विवेकानंद के पिता कलकत्ता उच्च न्यायाल में अधिवक्ता के पद पर कार्यरत थे, वहीं माता भुवनेश्वरी देवी एक गृहंणी थी। परिवार के धार्मिक और आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से स्वामी विवेकानंद के मन में धर्म को लेकर काफी श्रद्धा
भाव था।
बचपन से ही कंठस्थ थे रामायण व महाभारत के अध्याय
आपको शायद ही पता होगा कि, स्वामी विवेकानंद एक बार पढ़कर ही पूरी पुस्तक याद कर लिया करते थे। संस्कृत व्याकरण, रामायण और महाभारत के अध्याय उन्हें बचपन से याद थे। शुरुआत में वह अंग्रेजी भाषा से घृंणा करते थे, उनका मानना था कि इन्हीं लोगों ने हमारे देश पर कब्जा किया हुआ है। लेकिन बाद में उन्होंने ना केवल अंग्रेजी भाषा सीखी बल्कि इस पर महारथ भी हासिल कर ली। बचपन से ही उनमें नेतृत्व का गुण था, वह ना केवल किसी के कहने पर किसी की बात मान लिया करते थे बल्कि उसकी तार्किकता को भी परखते थे। सन्यासी बनने का विचार भी उनके अंदर बचपन से ही था। महज 25 साल की उम्र में सांसारिक मोह माया का किया त्याग
बता दें स्वामी विवेकानंद जी ने महज 25 साल की उम्र में सासंसारिक मोह माया का त्याग कर सन्यासी धर्म अपना लिया था। इस दौरान 1881 में उनकी मुलाकात स्वामी रामकृष्ण परमहंस से भेंट हुई। इस दौरान रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता में दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी थे। परमहंस से भेंट के बाद स्वामी विवेकानंद के जीवन में कई परिवर्तन आए। शुरुआत में उन्होंने परमहंस की बात पर भी संशय किया, लेकिन उलझन के बाद विवेकानंद ने परमहंस को अपना गुरू बना लिया।रामकृष्ण परमहंस से मुलाकात के बाद विवेकानंद ने उनसे सवाल किया कि, क्या आपने कभी भगवान को देखा, परमहंस ने जवाब दिया हां मैंने देखा है। मैं भगवान को उतना ही साफ देख रहा हूं, जितना कि तुम्हें देख सकता हूं, बस फर्क इतना है कि मैं उन्हें तुमसे ज्यादा गहराई से महसूस करता हूं। इस जवाब को सुनने के बाद स्वामी जी ने परमहंस को अपना गुरू बना लिया। विवेकानंद के मानवता में निहित ईश्वर की सेवा को देखते हुए परमहंस ने उन्हें अपना सबसे प्रिय बना लिया।रामकृष्ण परमहंस ने दी अपनी उपाधि
रामकृष्ण ने अपने निधन से पहले नरेंद्र को अपने सभी शिष्यों का प्रमुख और अपना सबसे प्रिय शिष्य घोषित कर दिया। इसके बाद एक सन्यासी के रूप में उन्होंने बराहनगर मठ की स्थापना की और भारतीय मठ परंपरा का पालन करते हुए उन्होंने कई सालों तक भारतीय उपमहाद्वीप के अलग अलग क्षेत्रों का भ्रमण किया। सन्यासी के रूप में वह भगवा वस्त्र धारण करने लगे। उन्होंने पूरे देश को अपना घर और सभी लोगों को भाई बहन मान लिया था।31 से अधिक बीमारियों से पीड़ित थे स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानंद ने महज 39 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया था। बांग्ला लेखक मणिशंकर मुखर्जी द मॉन्क ऐज मैन में बताया है कि, स्वामी जी 31 बीमारियों से पीड़ित थे, कम उम्र में मृत्यु का कारण उनकी बीमारियां थी। वह डायबिटीज, किडनी, लिवर अनिद्रा, मलेरिया, माइग्रेन और दिल संबंधी कई बीमारियों से ग्रस्त थे। यही कारण था कि स्वामी विवेकानंनद को अपनी मृत्यु का पहले ही अहसास हो गया था, वह अक्सर कहा करते थे कि 40 बरस से अधिक आयु तक वो जीवित नहीं रह सकेंगे। उनकी यह भविष्यवाणी सही निकली और स्वामी जी 4 जुलाई 1902 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।
जब शिकागो में पूरे दो मिनट तक बजती रहीं तालियां
11 सितंबर 1893 में अमेरिका में विश्व धर्म महासभा का आयोजन हुआ। इस आयोजन में स्वामी विवेकानंद भी शामिल हुए थे। यहां उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत हिंदी में ये कहकर की कि ‘अमेरिका के भाइयों और बहनों’। विवेकानंद जी के भाषण पर आर्ट इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो में पूरे दो मिनट तक तालियां बजती रहीं। जो भारत के इतिहास में एक गर्व और सम्मान की घटना के तौर पर दर्ज हो गई। इसी भाषण के बाद दुनिया ने उनकी अध्यात्मिक सोच और दर्शनशास्त्र से प्रभावित हुई।
जब विदेशी व्यक्ति के घमंड को किया था चूर
विवेकानंद जी अक्सर साधारण भिक्षु रूपी वस्त्र पहनते थे। एक दिन इसी वस्त्र को धारण कर वे विदेश में घूम रहे थे। उनके वस्त्र ने एक विदेशी का ध्यान खींच लिया। उस विदेशी ने चिढ़ाते हुए विवेकानंद जी की पगड़ी तक खींच ली। विदेशी की इस हरकत के बाद उन्होंने स्पष्ट अंग्रेजी में ऐसा करने का कारण पूछा तो वह विदेशी आश्चर्य में पड़ गया। उस विदेश को ये समझ नहीं आ रहा था कि साधु के रूप में इस व्यक्ति को इतनी अच्छी अंग्रेजी कैसे आती है। फिर उसने विवेकानंद जी से पूछ लिया कि क्या आप शिक्षित हैं? तब स्वामी विवेकानंद जी ने विनम्रता से कहा ‘हां मैं पढ़ा लिखा हूं और सज्जन व्यक्ति हूं।’ तब विदेशी ने कहा कि आपके कपड़े देखकर तो नहीं लगता कि आप सज्जन व्यक्ति हैं। इस बात पर स्वामी विवेकानंद ने जवाब देते हुए कहा कि आपके देश में एक दर्जी व्यक्ति को सज्जन बनाता है, लेकिन मेरे देश में व्यक्ति का व्यवहार उसे सज्जन बनाता है। ऐसा जवाब सुनकर उस विदेशी को शर्मिंदगी महसूस हुई और अपनी गलती का आभास हुआ। रिपोर्ट अशोक झा