Khabar Aajkal SiliguriKhabar Aajkal Siliguri
  • Local News
    • Siliguri
    • West Bengal
    • India
  • International
  • Horoscope
  • Sports
  • Contact Us
  • Privacy Policy
Facebook Twitter Instagram
Facebook Twitter Instagram
Khabar Aajkal SiliguriKhabar Aajkal Siliguri
  • Local News
    • Siliguri
    • West Bengal
    • India
  • International
  • Horoscope
  • Sports
  • Contact Us
  • Privacy Policy
Khabar Aajkal SiliguriKhabar Aajkal Siliguri
Election

नेपाल चुनाव: किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत भी नहीं मिला है और पीएम को लेकर भी असमंजस की स्थिति

Uma ShaBy Uma ShaDecember 3, 2022
Facebook WhatsApp Twitter LinkedIn Email Telegram
Share
Facebook Twitter LinkedIn Pinterest Email

नेपाल चुनाव: किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत भी नहीं मिला है और पीएम को लेकर भी असमंजस की स्थिति
-इशारा है कि नेपाल की राजनीति में चीन का असर कम हो रहा है
अशोक झा सिलीगुड़ी:
भारत के पड़ोसी देश नेपाल में चुनावी सरगर्मी तेज चल रही है। गिनती की प्रक्रिया अभी भी पूरी नहीं हुई है, किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत भी नहीं मिला है और पीएम को लेकर भी असमंजस की स्थिति है।
इस समय नेपाली कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, उसके खाते में 55 सीटें आ चुकी हैं। वहीं केपी ओली की पार्टी भी ज्यादा पीछे नहीं है और 44 सीटें जीत ली गई हैं। लेकिन किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत के लिए 138 सीटें जीतनी है, उस स्थिति में कोई भी पहुंचता नहीं दिख रहा है। यहां ये समझना जरूरी है कि नेपाल के 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा में 165 का चुनाव प्रत्यक्ष मतदान से होता है. वहीं जो बाकी 110 होते हैं, वो आनुपातिक चुनाव प्रणाली से चुने जाते हैं. पत्यक्ष मतदान वालीं 165 सीटों में से 162 सीटों के नतीजे आ गए हैं। यानी कि सिर्फ तीन और सीटों पर नतीजे आने बाकी हैं. ऐसे में ये साफ हो चुका है कि शेर बहादुर देउबा की पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में सामने आई है। लेकिन अभी बहुमत तक पहुंचने के लिए उसे कई दूसरे दलों का सहारा लेना पड़ेगा। कहा जा रहा है कि नेपाली कांग्रेस में इस समय पीएम पद को लेकर होड़ मची हुई है। नेशनल कांफ्रेंस के वरिष्ठ नेता प्रकाश मान सिंह तो पहले ही कह चुके हैं कि आवंटित सीटों का निर्धारण करने के बाद ही संसदीय दल का नेता चुना जाएगा। रेस में देउबा इस बार भी सबसे आगे चल रहे हैं, लेकिन क्योंकि कई दूसरे नेता भी आस लगाए बैठे हैं, ऐसे में अभी खुलकर कुछ भी बोलने से बचा जा रहा है।
देउबा पांच बार और ओली व प्रचंड दो-दो बार प्रधानमंत्री रह चुके हैं।राजतंत्र की पक्षधर मानी जाने वाली राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी को चुनावों में मिले अच्छे समर्थन ने भी नेपाल की राजनीति के राजशाही वाले पुराने पहलू को फिर से चर्चा का विषय बना दिया है।नेपाल चुनावों के अब तक प्राप्त लगभग सभी चुनाव परिणामों से साफ संकेत मिल रहे हैं कि वहां नेपाली कांग्रेस नीत सत्तारूढ़ गठबंधन सरकार दोबारा सत्तारूढ़ होने की ओर अग्रसर है। लेकिन फिलहाल अगर इन चुनावों के भारत और चीन के लिए संकेतों से इतर, नेपाल की राजनीति के भावी स्वरूप के बारे में मिलने वाले संकेतों की बात करें तो चुनाव परिणामों से अलग-अलग धुरी वाली विचारधाराओं में बंटे किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पाया है।
जिस तरह इस बार के चुनावों में 61 प्रतिशत वोटिंग हुई, राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि वह इस बात की तरफ संकेत है कि जनता दोनों ही मुख्य गठबंधनों से ज्यादा संतुष्ट नहीं है। मौजूदा परिस्थति में वह किसी भी दल को निर्णायक की भूमिका नहीं सौंप रही है लेकिन साथ ही वह वहां अस्थिरता भी नहीं चाहती है। संभवतः इसी सोच के चलते मुख्य विपक्षी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी- एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी विपक्ष वहां प्रभावी भूमिका में रहने वाला है।

लेकिन चुनाव परिणामों से कुछ और खास संकेत भी मिलते हैं कि जिस तरह से इसी वर्ष जून में गठित मुख्यतः शहरों में केंद्रित युवा कार्यकर्ताओं की राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी ने चुनाव परिणामों के गणित में इस बार पुराने दलों को चुनौती दी है, खास तौर पर पुराने दलों को इस दल के भविष्य पर, इस को लेकर उपजी जन आकांक्षाओं पर खास ध्यान देना होगा।

यह ध्यान देने की बात है कि देउबा पांच बार और ओली व प्रचंड दो-दो बार प्रधानमंत्री रह चुके हैं। लेकिन विशेष तौर पर कोविड के बाद देश की खस्ताहाल आर्थिक स्थिति में कोई खास सुधार न देख जनता के बीच व्याप्त निराशा को देखते हुए राजनीति में युवाओं की भूमिका पर विशेष ध्यान रहेगा। राजतंत्र की पक्षधर मानी जाने वाली राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी को चुनावों में मिले अच्छे समर्थन ने भी नेपाल की राजनीति के राजशाही वाले पुराने पहलू को फिर से चर्चा का विषय बना दिया है।

वैसे राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्र से पता चलता है कि आंतरिक राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर किए गए वादों के साथ चुनाव से पहले बड़े अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी काफी चर्चा हुई। इसी संदर्भ में अगर इन चुनाव परिणामों को भारत के परिप्रेक्ष्य से देखें तो जिस तरह से पिछले कुछ बरसों में भारत नेपाल संबंधों में असहजता के दौर आते रहे हैं, ऐसे में पिछली देउबा गठबंधन सरकार के साथ जिस तरह से भारत के संबंध रहे हैं, उससे लगता है कि मध्यम मार्गी रवैया अपनाते हुए नई साझा सरकार के साथ भारत के संबंध ठीक रहेंगे।

जबकि चीन के साथ निकटता के लिए पहचाने जाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री ओली के कार्यकाल में भारत नेपाल के संबंधों में तल्खियां रहीं। उनके दल के चुनाव घोषणापत्र में भी पड़ोसी भारत के साथ नेपाल की प्रादेशिक अखंडता के मुद्दे पर सवाल उठाए गए। बहरहाल, ये चुनाव नेपाल की आंतरिक राजनीति के भावी स्वरूप के बारे में तो कुछ हद तक संकेत दे ही रहे हैं, साथ ही नेपाल के परंपरागत पड़ोसी मित्र देश भारत के लिए यह अपने मैत्रीपूर्ण और सहयोगी रिश्तों को और आगे बढ़ाकर एक नया अध्याय बनाने का अवसर बन सकता है, खास तौर पर ऐसे में जबकि चीन की नेपाल में वाम ताकतों को मजबूत कर अपने विस्तारवादी एजेंडा को आगे बढ़ाने पर नजरें टिकी हैं।

नेपाल में चुनावी मुकाबला दोतरफा था। एक तरफ सत्ताधारी पांच पार्टियों का गठबंधन था जिसका नेतृत्व नेपाली कांग्रेस ने किया। इस गठबंधन को मुख्य विपक्षी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी- एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी नीत गठबंधन ने चुनौती दी। वैचारिक आधार पर राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी और दूसरे निर्दलीय उम्मीदवारों की भूमिका भी अहम रही। मई 2022 में काठमांडू के मेयर के चुनाव में ऐसे उम्मीदवार ने बड़ी जीत हासिल की थी। हालांकि अनेक लोगों की राय रही कि सत्ताधारी और विपक्षी पार्टियों का गठबंधन अवसरवादी ही था।

वैचारिक स्तर पर बिना किसी साझा न्यूनतम कार्यक्रम के गठित नेपाल की पार्टियों का ये गठबंधन नेपाल के चुनाव को लेकर लोगों के सामने एक दिलचस्प तस्वीर पेश करता है। नेपाल की आंतरिक राजनीति में भारत नेपाल रिश्तों की बात करें तो 2015 में भारत के द्वारा सीमा पर छह महीने लंबी नाकेबंदी के बाद कम्युनिस्ट गठबंधन ने जो भारत विरोधी माहौल तैयार किया और जिसने 2017 के चुनाव में उसकी जीत में महत्वपूर्ण योगदान दिया, वो अब खत्म होता दिख रहा है।

ओली की सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों के मुद्दे, पार्टी के भीतर आंतरिक बंटवारे और संसद को भंग करने की उनकी कोशिशों ने वाम गठबंधन की लोकप्रियता को स्वाभाविक रूप से ठेस पहुंचाई है। दूसरी तरफ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी- एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी के नेतृत्व वाले गठबंधन को चीन की कई कोशिशों के बाद भी नाकामी मिलना इस बात की तरफ इशारा है कि नेपाल की राजनीति में चीन का असर कम हो रहा है। इसके विपरीत, नेपाल के द्वारा भारत को अरबों रु। के बिजली निर्यात और महामारी के दौरान नेपाल को भारत के समर्थन ने भारत विरोधी भावना को कम किया है। रिपोर्ट अशोक झा

Share. Facebook WhatsApp Twitter Pinterest LinkedIn Telegram Email

Related Posts

अलीपुरद्वार से बीजेपी के विधायक सुमन कांजीलाल ने अब टीएमसी का दामन थाम लिया

February 6, 2023

प्रधानमंत्री का 2024 में लोकसभा चुनाव तमिलनाडु से लड़ने की संभावना ज्यादा

January 27, 2023

मेघालय विधानसभा चुनाव के लिए अभिषेक बनर्जी 24 जनवरी को पार्टी का घोषणापत्र करेंगे जारी

January 22, 2023
Advertisement
Archives
Facebook Twitter Instagram WhatsApp
  • Contact Us
  • Privacy Policy
© 2023 Khabar Aajkal Siliguri

Type above and press Enter to search. Press Esc to cancel.