Khabar Aajkal SiliguriKhabar Aajkal Siliguri
  • Local News
    • Siliguri
    • West Bengal
    • India
  • International
  • Horoscope
  • Sports
  • Contact Us
  • Privacy Policy
Facebook Twitter Instagram
Facebook Twitter Instagram
Khabar Aajkal SiliguriKhabar Aajkal Siliguri
  • Local News
    • Siliguri
    • West Bengal
    • India
  • International
  • Horoscope
  • Sports
  • Contact Us
  • Privacy Policy
Khabar Aajkal SiliguriKhabar Aajkal Siliguri
Home»India»उज्जैन में महाकाल का सुप्रसिद्ध मंदिर जो दुनिया में  एक
India

उज्जैन में महाकाल का सुप्रसिद्ध मंदिर जो दुनिया में  एक

Uma ShaBy Uma ShaFebruary 19, 2023
Facebook WhatsApp Twitter LinkedIn Email Telegram
Share
Facebook Twitter LinkedIn Pinterest Email

उज्जैन में महाकाल का सुप्रसिद्ध मंदिर जो दुनिया में  एक
अशोक झा, सिलीगुड़ी: विक्रम की नगरी उज्जैन में महाकाल का सुप्रसिद्ध मंदिर है। देश के अन्य किसी भाग में महाकाल का कोई मंदिर नहीं है। अत: निश्चय ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यह ‘महाकाल’ कौन देवता हैं जिसका केवल देशभर में एक मंदिर है। सामान्यतया ‘महाकाल’ शिव का पर्याय मान लिया गया है और उज्जैन के ‘महाकाल’ के मंदिर को शिव का मंदिर माना जाता है। परंतु प्रश्न यह है कि शिव के अन्य मंदिर ‘महाकाल’ के मंदिर क्यों नहीं कहलाते? हमारे विचार से विक्रमादित्य, उज्जयिनी, नवरत्न और महाकाल इन चारों शब्दों के निर्वचन से इसके वास्तविक अर्थ पर कुछ प्रकाश पड़ सकता है और सुप्रसिद्ध कथा की गुत्थी सुलझ सकती है। भारतीय ज्योतिष के विद्वान यह जानते हैं कि उज्जैन का सूर्योदय काल देशभर के पंचांगों के लिए प्रामाणिक उदय काल माना जाता रहा है। भारतीय ज्योतिषियों के अनुसार दक्षिण में लंका, भारत के मध्य में उज्जैन और (संभवत: वर्तमान) रोहतक नगरों के मध्य से जाने वाली देशांतर रेखा का सूर्योदय काल प्रामाणिक सूर्योदय काल है। परिवर्तित ज्योतिष ग्रंथों में उसका नाम ‘लंकोदय’ काल रहा है। लंकोदय की देशांतर रेखा से पूर्व में तथा पश्चिम में स्थित स्थानों के सूर्योदय का काल ज्ञात करने की विधियां निर्धारित की हुई हैं।इस प्रकार उज्जयिनी का सूर्योदय काल देशभर के लिए प्रामाणिक सूर्योदय काल था और आधुनिक भाषा में उसे भारत का ‘स्टैंडर्ड टाइम’ कहा जा सकता है। ईसा पूर्व के ज्योतिष संभवतया इसी को महाकाल कहते थे। विविध शास्त्रीय तथ्यों को देव रूप से स्वीकार करने की हमारे यहां परंपरा रही है। इसी परंपरा के अंतर्गत महाकाल स्टैंडर्ड टाइम को देव रूप में दिया गया और उसके मंदिर की स्थापना उज्जयिनी में की गई। उज्जयिनी को क्यों चुना गया, यह भी एक ज्वलंत प्रश्न है। जब एक ही देशांतर रेखा देश के इतने लंबे-चौड़े भाग से निकलती है तो उज्जैन को ही क्यों महत्व दिया जाए। उत्तर यह है कि उज्जैन कर्क रेखा पर स्थित है, जहां तक उत्तरायण सूर्य आता है और लौटकर मकर रेखा का दक्षिण भाग में होता है। कर्क रेखा पर स्थित होने के कारण भारतीय ज्योतिर्विदों ने उज्जैन को महाकाल की नगरी माना।
विक्रमादित्य शब्द में दो खंड हैं विक्रम-आदित्य। आजकल विक्रम का अर्थ सामान्यतया पराक्रम समझा जाता है और आदित्य का अर्थ ‘सूर्य’। इस प्रकार विक्रमादित्य का अर्थ शक्ति का सूर्य किया जाता है। परंतु विक्रम शब्द में क्रम धातु है जिसका अर्थ है चलना। इसी से बना हुआ दूसरा शब्द ‘संक्रम’ है, जो सूर्य की गति के विषय में सर्वविदित है। सूर्य का संक्रम, संक्रमण और संस्कृति आधुनिक ज्योतिषियों के लिए अपरिचित शब्द नहीं है।

उज्जैन की व्युत्पत्ति इस समय उज्जयिनी में मानी जाती है। उज्जैन के प्राकृत नाम ‘उज्जैणी’ या ‘उज्जैन नगरी’ थे, जो स्पष्टत: संस्कृत ‘उदयिनी’ एवं ‘उदयन नगरी’ से व्युत्पन प्रतीत होते हैं। पुन: संस्कृतिकरण की यह प्रक्रिया ‘कथा सरित्सागर’ आदि में बहुत अधिक पाई जाती है। उज्जैन वास्तव में विक्रमादित्य के उदय की नगरी थी। भारतीय कथा साहित्य का सुप्रसिद्ध उदयन भी सूर्य का ही अन्य नाम है जिसका विवेचन आगे किया जाएगा।

इस प्रकार विक्रमादित्य महाकाल तथा उज्जयिनी की व्युत्पत्ति पर विचार करने से यही ज्ञात होता है कि विक्रमादित्य नाम का वास्तविक राजा नहीं था। वह दक्षिणगामी सूर्य का ही कल्पित नाम है और उसे राजा का स्वरूप दे दिया गया है। उसे राजा मानने पर उसकी राजधानी उदयिनी अथवा ‘उज्जैणी’ (बाद में उज्जयिनी) कल्पित की गई और उसी नगरी का समय संपूर्ण देश के लिए प्रामाणिक समय होने के कारण ‘महाकाल’ कहलाया। इतने विवेचन के बाद नवरत्नों की कल्पना भी स्पष्ट हो जाती है, जो निसंदेह नव-ग्रह हैं।एक नियम स्थान तक आगे बढ़कर वापस मूल स्थान तक पहुंचना सिंह विक्रांत कहलाता है। सिंह का स्वभाव शिकार करने के लिए कुछ दूर तक वन में आगे बढ़कर पुनः लौटने की क्रिया के लिए ‘सिंह विक्रांत’ या ‘सिंह विक्रमण’ शब्द प्रसिद्ध हुआ है। कर्क राशि तक उत्तर दिशा में चलकर पुन: दक्षिण की और विक्रमण करने वाला सूर्य ‘सिंह विक्रमी’ हुआ। यही ‘सिंह’ राशि व्युत्पत्ति है। सूर्य 31 दिन तक कर्क राशि पर रहकर 32वें दिन सिंह राशि पर पहुंचता है। यही सिंहासन बत्तीसी का रहस्य है। सूर्य सिंह राशि का स्वामी माना जाता है। कर्क तक आगे बढ़कर वह वापस लौटता है और अपने घर की राशि तक आकर वहां आसीन होता है। सूर्य की उत्तर-दक्षिण यात्राएं नीचे स्पष्ट की जा रही हैं:-

सिंह के बाद सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है (संभवत: प्राचीन भारतीय राशि विभाजन खगोल का नहीं, भूमंडल का था। भूमि के जिस भाग पर सूर्य राशियां सीधी पड़ती थीं, वही राशि विशेष खंड का था। ‘राशि’ शुद्ध संभवत: ‘रश्मि’ के प्राकृत रूप ‘रस्सियां’, ‘रश्शि’ का पुन: संस्कृत रूप है। सतरंगी किरणों के कारण ‘सप्ताश्व’ सूर्य का रूपक भी इस ‘रश्मि’ शब्द से स्पष्ट होता है।

उत्तर भारत के ईसा पूर्वकालीन आर्यों की दृष्टि से वह प्रदेश कुमारी कन्याओं का प्रदेश था। भारत का यह दक्षिण भू-भाग (अर्थात 16 अक्षांस से 8 अक्षांश का भू-भाग) कुमारी कन्याओं का प्रदेश माना जाता था। उस प्रदेश पर सीधी किरणें फेंकने वाला सूर्य कन्यार्क कहलाता था। कन्याओं के उस देश की स्मृति के रूप में आज भी कुमारी अंतरीप का दर्शनीय कन्याकुमारी का मंदिर जगत प्रसिद्ध है।

वहां से दक्षिण की ओर बढ़ता हुआ सूर्य जब विषुवत रेखा पर पहुंच जाता है और वहां उसकी किरणें सीधी पड़ती हैं, वह तुला राशि पर पहुंचा हुआ माना जाता है। ‘तुला’ नाम बहुत सार्थक है। विषुवत रेखा पर जब सूर्य पहुंच जाता है तो भूमंडल का उत्तर और दक्षिण का भाग बिलकुल बराबर तुला हुआ होता है। यही ‘तुला’ शब्द की सार्थकता है। उसके बाद आगे बढ़कर सूर्य जब वृश्चिक राशि पर पहुंचता है तो उज्जयिनी पर पड़ने वाली सूर्य की किरणें उतनी ही वक्र होती हैं जितना बिच्छू का डंक होता है। उससे आगे बढ़ने पर उज्जैन पर पड़ने वाली किरणें और भी अधिक वक्र हो जाती हैं और धनुष के समान दिखाई पड़ती हैं। यह ‘धनु’ का अर्थ है। उसके बाद समुद्र के मध्यगत मकर राशि तक पहुंचकर सूर्य का पुन: उत्तरायण प्रारंभ होता है। मकर का स्वभाव अगाध जल में पहुंचकर पुन: स्थल की ओर लौटने का है, यही ‘मकर’ राशि की सार्थकता है। वहां से संक्रमण करता हुआ सूर्य सर्वप्रथम स्थल भाग के निकट आता है। वह स्थल भाग किसी समय संभवत: घड़े के घोण जैसा था और इसलिए ‘कुम्भघोण’ नाम से प्रसिद्ध है, जहां का स्थल भाग घड़े के घोण जैसा है। कुंभ राशि का ‘कुम्भ घोण’ संभवत: कोई द्वीप था, जो अगाध समुद्र में लुप्त हो गया।उससे उत्तर में बढ़ने पर अगाध समुद्र है जिसमें प्राणी के नाम पर केवल मीनों का निवास है अत: वह मीन राशि का प्रदेश कहलाया। वहां से आगे संक्रमण करके सूर्य लंकोदय की प्रसिद्ध नगरी लंका तक पहुंचता है और उससे वह ‘वृशस्थ’ कहलाया। वहीं भारतीय कथाओं में ‘वत्सराज (वृष) उदय’ नाम से चित्रित हुआ है। वत्सराज ने नागवन में अपनी प्रेयसी को प्राप्त किया था। यह नागवन वर्तमान मैसूर के पास का प्रदेश है, जहां के वनों में हाथियों की बहुलता है। यही सूर्य मिथुन राशि का स्वामी बनता है। उदय के नागवन में पत्नी से मिलन (मिथुन) की कथा सूर्य के मिथुन राशि पर आने की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। मिथुन के बाद सूर्य उदयिनी पति बन जाता है और अपनी प्रेयसी के नगर उज्जयिनी पहुंचकर ‘कर्कस्थ’ होता है। कर्क का स्वभाव स्थल से जल की ओर जाने का होने के कारण वह वापस जल की ओर दक्षिणगामी होता है।

सूर्य के अयन से संबंधित ज्योतिष शास्त्र की यह घटना भारतीय साहित्य में एक रोचक कथा का रूप धारण कर चुकी थी और वृद्धजनों के मुख से यत्र-तत्र सुनी जाती थी जिसका संकेत कालिदास ने किया है:- प्राप्यावन्तीमुदुयन कथा को विदग्रामवृशान। विदेशी दूध मेगस्थनीज ने भी सूर्य की कथा का श्रवण भारत के वृद्ध नागरिकों से किया था और उसका वर्णन उद्धरण इस प्रकार है:-

हरकुले (स) सौरसेन लोगों का इष्टदेव है और उसके दो प्रसिद्ध नगर हैं, एक मथुरा और दूसरा क्लिसबुरा जिसके पास ऐबोन्नी नदी बहती है। हरकुले (स) की पुत्री पांडया का राज्य दक्षिण में पांडय प्रदेश में है। हरकुले दायोनीस (स) से 15 पीढ़ी बाद हुआ। शिव (शिवी) लोग अपने को हरकुल का वंशज मानते हैं। ‘एज ऑफ नंदाज एंड मौर्याज’ ग्रंथ के पृष्ठ 101 पर नीलकंठ शास्त्री ने इस उद्धरण की व्याख्या करने की कोशिश की है और मदुरा को मथुरा तथा ऐबोन्नी यमुना माना है।

यह व्याख्या भ्रामक है। ‘मथुरा’ वास्तव में दक्षिण की ‘मदुरा’ नगरी है, जहां कन्याओं के प्रदेश के पांडय राज्य की इतिहास प्रसिद्ध राजधानी रही है। क्लिसबुरा और ऐबोन्नी की व्याख्या में ग्रीक के अनुवादक भूल कर बैठे हैं। क्लिसबुरा वास्तव में शिप्रा का ग्रीक रूप है और ऐबोन्नी ‘अवन्ती’ का शुद्ध अर्थ यह है कि दूसरी राजधानी ऐबोन्नी है जिसके पास क्लिसबुरा नदी बहती है। हरकुले (स) ‘हरिकुल’ (सूर्यवंश) का ग्रीक रूप है और दायोनीस (स) ‘दिनेश’ का। हरकुले और दायोनीस से ध्वनि साम्य होने के कारण मेगस्थनीज ने ये रूप स्वीकृत किए। सिकंदर से लोहा लेने वाले ‘शिवि’ लोग सूर्यवंशी थे। यह कथा ‍सरित्सागर से स्पष्ट है। अत: शैववाद की कल्पना व्यर्थ है। सौरसेन भी ‘शूरसेन’ से संबद्ध नहीं, सूर्योपासक (सौरसेन) हैं। इस प्रकार मेगस्थनीज के उद्धरण का स्पष्ट अर्थ यह है कि हरिकुलों की दो राजधानियां हैं। एक मदुरा और दूसरी शिप्रा के किनारे अवन्ती में। मुदरा में पांडय रानी का राज्य है। वह दिनेश से 15 पीढ़ी बाद हुई। शिवि लोग भी हरिकुल के ही हैं। मेगस्थनीज ने जिस कथा को सुना था, उसकी घटना इतिहाससम्मत भी है और प्रतीकात्मक भी। सूर्य उज्जयिनी में कर्कस्थ होता है और मदुरा में कन्या राशि पर।परंतु अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि विक्रमादित्य की इस कहानी के माध्यम से ज्योतिष के विषय स्पष्ट करने का प्रयास भारत के कवि वर्ग ने क्यों किया। पतंजलि के ‘महाभाग्य’ और सोमदेव के ‘कथा सरित्सागर’ आदि ग्रंथों को देखने से इस विषय पर कुछ प्रकाश पड़ता है। भारतीय शिक्षाशास्त्रियों में किसी समय बहुत बड़ा विवाद रहा है। एक वर्ग वैयाकरणों का था, जो यह मानते थे कि विद्यार्थी को सर्वप्रथम व्याकरण का अध्यापन कराया जाए तथा ज्ञान-विज्ञान की भाषा को नियंत्रित रखा जाए और उसमें अंतर न होने दिया जाए। इस प्रकार के व्याकरणों के प्रयत्न के फलस्वरूप ‘संस्कृत नामक’ अमरवाणी का जन्म हुआ, जो लगभग अढ़ाई हजार वर्षों तक भारत के ज्ञान-‍विज्ञान की भाषा रही है और जिसमें ‍विविध शास्त्रों का प्रणयन होता रहा। पतंजलि के अनुसार परिवर्तनशील भाषा की गड़बड़ से घबराकर देवताओं ने इंद्र से प्रार्थना की कि भाषा को नियंत्रित किया जाए और इंद्र ने सर्वप्रथम व्याकरण बनाकर उनका अनुशासन कर दिया।

दूसरा वर्ग ऐसे लोगों का था, जो भाषा को नियमों से बांधने के पक्ष में नहीं थे। उनका कहना था कि रुक्ष भाषा और नीरस गद्य खंडों में व्याकरण बनाने की आवश्यकता नहीं है। विषय का प्रतिपादन सत्य और मनोहर कथात्मक पद्यबद्ध रीति से किया जाना चाहिए जिससे पाठक को विषय का ज्ञान भी हो जाए और अध्ययन में उसकी रुचि में बनी रहे।

परंतु खेद की बात है कि इसमें नौरंजकतावादी शिक्षाशास्त्रियों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि कथा का मनोरंजक अंश पढ़ते समय पाठकों का मन केवल उसके रंजक अंक में ही लीन रहता है और वह अन्योक्ति के रूप में व्यक्त किए हुए ज्ञान को समझ ही नहीं पाता था। ‘बृहत्कथा’ में संभवत: ज्योतिष, भूगोल, इतिहास आदि अनेक विषयों की मनोहर कथाओं का समावेश किया गया था, परंतु परवर्ती पाठकों के लिए वह मनोहर कथा मात्र रह गई। वत्सराज उदयन, विक्रमादित्य आदि की कथा सर्वप्रथम बृहत्कथामें लिखी गई थी और उनके द्वारा ज्योतिष के तथ्यों का प्रतिपादन किया गया था

ऐसा लगता है कि ‘बृहत्कथा’ के काल के ज्योतिष शास्त्र बहुत बढ़ा-चढ़ा था। उसके बाद एक बहुत लंबा समय भारतीय ज्योतिष के पतन का आया, जिस काल कोई ग्रंथ इस समय विद्यमान नहीं है। इसीलिए ‘स्टैंडर्ड टाइम’ के अर्थों में किसी प्रयुक्त होने वाले ‘महाकाल’ शब्द का प्रयोग वर्तमान युग में प्राप्त किसी ज्योतिष शास्त्र के ग्रंथों में नहीं मिलता। यद्यपि उज्जैन का उदयकाल ही उन सब में भी प्रमुख उदय काल माना गया है। ‘स्टैंडर्ड टाइम’ के अर्थों में जिस समय ‘महाकाल’ शब्द का प्रयोग होता था, उस समय के ज्योतिष शास्त्र के विषय में बहुत अधिक अन्वेषण की आवश्यकता है। ‘कथा सरित्सागर’ और ‘बृहत्कथा’ मंजरी आदि की कहानियों के आधार पर ज्योतिष शास्त्र, भूगोल, इतिहास आदि के अनेक तथ्यों का शोध किया जा सकता है।

आशा है विद्वान लोग इस दिशा में कार्य करेंगे और भारतीय ज्योतिष के उस विस्मृत ‘महाकाल’ को पूरा प्रकाश में लाएंगे। इस प्रकार के अन्वेषण से यह भी सिद्ध हो पाएगा कि संस्कृत राशि-नामावली शुद्ध भारतीय है, ग्रीक शब्दावली का अनुवाद नहीं। वास्तव में ग्रीक नामावली ही अनुवाद है। यह भी विदित होगा कि भारतीय कथाओं की बहुत-सी नामावलियां वास्तव में परिभाषित शब्दों की बोधक है। इससे हमारी सांस्कृतिक समृद्धि का उद्घाटन भी होगा। रिपोर्ट अशोक झा

Share. Facebook WhatsApp Twitter Pinterest LinkedIn Telegram Email

Related Posts

शिक्षा को प्रोत्साहित करने की दिशा में डॉ. हुसैन का योगदान प्रमुख

March 27, 2023

7 वर्षीय बच्ची का शव मिलने के बाद जमकर हंगामा, जम कर आगजनी

March 27, 2023

राष्ट्रपति काममता बनर्जी ने किया स्वागत

March 27, 2023
Advertisement
Facebook Twitter Instagram WhatsApp
  • Contact Us
  • Privacy Policy
© 2023 Khabar Aajkal Siliguri

Type above and press Enter to search. Press Esc to cancel.